Bulleh shah poetry in hindi with meaning

बुल्ले शाह का जीवन ही मनुष्यता की खोज करती एक कविता है- 'बुल्ला की जाणा मैं कोण'

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बुल्ले शाह विद्वान संत थे. उन्हें इस्लाम और सूफी दर्शन का गहन ज्ञान था. विख्यात सूफी संत हजरत इनायतशाह के संपर्क में आने के बाद बुल्ले शाह के जीवन में महत्वपूर्ण और निर्णायक बदलाव आया. इनायतशाह से दीक्षा लेने के बाद उनके जीवन की दिशा...और पढ़ें

हिंदी साहित्य के जगत के चर्चित प्रकाशन संस्थान राजपाल एंड संज ने हमारे भक्ति आंदोलन के रचनाकारों की एक श्रृंखला शुरू की है- ‘कालजयी कवि और उनका काव्य’. इस श्रृंखला का संपादन कर रहे हैं चर्चित साहित्यकार डॉ. माधव हाड़ा. ‘कालजयी कवि और उनका काव्य’ श्रृंखला के अंतर्गत तुलसीदास, कबीर, रैदास, सूरदास, गुरु नानक, मीरा, अमीर खुसरो और बुल्ले शाह के संकलन प्रकाशित हो चुके हैं. यहां हम चर्चा कर रहे हैं- ‘बुल्ले शाह’ की.

सैकड़ों वर्ष बीतने के बाद भी बुल्ले शाह की रचनाएं अमर बनी हुई हैं. बुल्ले शाह की रचनाओं का सिनेमा, संगीत और टेलीविजन पर भी काफी इस्तेमाल हुआ है. आधुनिक समय के कई कलाकारों ने कई आधुनिक रूपों में भी उनकी रचनाओं को प्रस्तुत किया है. रब्बी शेरगील का एक रॉक गाना “बुल्ला की जाना” बहुत ही मशहूर है. बॉलीवुड फिल्म ‘रॉकस्टार’ के गाने “कतया करूं” में बुल्ले शाह सुनाई देते हैं. फिल्म ‘दिल से’ के गाने “छइयाँ छइयाँ” के बोल बुल्ले शाह के काफ़ी “तेरे इश्क नचाया कर थैया थैया” पर आधारित हैं.

बुल्ले शाह पंजाब के विख्यात सूफ़ी संत और कवि थे. इनका जीवन काल 1680 से लेकर 1757-58 तक माना जाता है. लगभग सवा तीन सौ साल पहले हुए इस संत की रचनाएं आज भी पूरी शिद्दत के साथ गाईं और गुनगुनायी जाती हैं. वे हिन्दुस्तानी सूफी थे. उनकी रचनाएं पंजाबी में हैं लेकिन सभी धर्मों में उनकी समान स्वीकार्यता है. बुल्ले शाह इनसान के अस्तित्व को लेकर जिज्ञासू और चिंतित हैं. वे कहते हैं-

बुल्ला की जाणा मैं कौण।
ना मैं मोमन विच मसीतां, ना मैं विच कुफर दीआं रीतां
ना मैं पाका विच पलीता, नाम मैं मूसा ना फरऔन।

मैं कौन हूं, किसे पता. ना तो मैं कट्टर मुसलमान हूं और ना ही नास्तिक. ना मैं पवित्र हूं और ना ही मलीन. ना तो मैं कोई पैगंबर हूं और ना ही कोई अहंकारी बादशाह. मुझे पता नहीं मैं कौन हूं.

ऐसी वाणी बोलने वाले बुल्ले शाह ने हिंदू, मुसलमान और सिखों में समान रूप से लोकप्रियता हासिल की थी. बुल्ले शाह को मानने वाले उन्हें परमात्मा का सेवक, दोनों लोकों के रहस्य का ज्ञाता, अनुभव तथा ज्ञान का सम्राट कहा करते थे. पंजाब का यह सूफी फकीर अध्यात्म के शिखर पर पहुंचा और हजारों-लाखों लोगों को अपने ज्ञान तथा अनुभव का साझीदार बनाया. उनके दोहे आज भी भारतीय उपमहाद्वीप पर लाखों लोगों की जुबान पर हैं. उन्होंने समाज के हर कोने में ज्ञान और भाईचारे के प्रेम की ज्योति जलाने का काम किया.

ऐसा जगया ज्ञान पलीता
ना हम हिंदू ना तुर्क जरूरी, नाम इश्क दी है मनजूरी
आशिक ने वर जीता, ऐसा जगया ज्ञान पलीता।

बुल्ला आशिक दी बात न्यारी, प्रेम वालयां बड़ी करारी
मुरख दी मत्त ऐवें मारी, वाक सुखन चुप्प कीता,
ऐसा जगया ज्ञान पलीता।

बुल्ले शाह का जीवन
पुस्तक में महान संत कवि बुल्ले शाह के जीवन के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है. बताते हैं कि बुल्ले शाह भी अन्य संत कवि-फकीरों की तरह ही जनश्रुतियों से घिरा हुआ है. उनका असली नाम अब्दुलाशाह था. उनका जीवनकाल समय 1680 से लेकर 1757-58 तक माना जाता है. बुल्ले शाह के दादा सय्यद अब्दुर रज्ज़ाक थे. वे सैय्यद जलाल-उद-दीन बुखारी के वंशज थे.

यहां माधव हाड़ा लिखते हैं- बुल्ले शाह की रचनाएं अन्य भारतीय संत भक्तों की तरह श्रुत और स्मृत परंपरा से हम तक आती हैं. यह लोक में पली-बढ़ी हैं. इसलिए इनमें पाठ का वैविध्य बहुत है. बुल्ले शाह के 150 काफ़ियां, 49 दोहे, 40 गढ़ें, तीन सिहरफियां, एक बारहमाह और एक अठवारा मिलता है. पुस्तक में चुने हुए 89 काफियां, 22 दोहे, 10 गढ़ें, एक अठवारा, एक बारहमाह और एक सिहरफी को शामिल किया गया है.

बुल्ले शाह सच की वकालत करते थे. एक काफियां में शाह कहते हैं-
मुंह आई बात ना रैह्नदी ए।
झूठ आखां ते कुझ बच्चदा ए, सच्च आखयां भांबड़ मचदा ए,
जी दोहा गल्ला तों जचदा ए, जच जच के जिहबा कैह्नदी ए।

अर्थात मुंह में आई बात रुकती नहीं हैं. झूठ बोलता हूं तो कुछ बचता और सच कहता हूं तो तूफान आ जाता है. इसलिए जो कहना है बहुत संभल-संभल कर कहता हूं।

बुल्ले शाह ने आजीवन कविता की. यहां माधव हाड़ा लिखते हैं- बुल्ले शाह की कविता के भी उनके जीवन की ही तरह तीन चरण हैं. पहले चरण में बुल्ले शाह की वो कविता है, जो इस्लाम के उनके अध्ययन और ज्ञान से प्रभावित हैं. यहां उन्होंने इस्लामी आचार-विचारों और मिथकों आदि का इस्तेमाल किया है. दूसरे चरण की कविता में बुल्ले शाह अपने मुर्शिद के संपर्क में आ चुके थे, जिससे प्रेम का महत्त्व, बाहरी ज्ञान और कर्मकांड की व्यर्थता भी उनकी समझ में आ गई थी.

बुल्ले शाह ने एक जगह लिखा है कि-
पतियां लिखां मैं शाम नू मोहे पिया नज़र न आवे
आंगन बना डरावना किस विध रैन विहावे
पांधे पंडित जगत के मैं पूछ रहीयां सारे
पोथी वेद का दोस है जो उल्टे भाग हमारे
 भैया वे ज्योतिशिया एक सच्ची बात भी कहियो
 जाँ मैं हीनी भाग की तां चुप भी न रहियो।

बुल्ले शाह ने धर्म के नाम पर कर्मकांड और अंधविश्वास का खुलकर विरोध किया. उन्होंने तमाम धर्मों पर इन बातों को लेकर कटाक्ष किए. वे कहते हैं कि मुल्ला और काज़ी धर्म का मार्ग बताने के बजाय मनु्ष्य को भ्रम में डालते हैं. ये ठग हैं और शिकारी की तरह चारों तरफ अपना जाल फैलाते हैं-
मुल्लां काजी राह बतावण, देण धरम दे फेरे
इह तां ठग न जग देझीवर, लावण जाल चुफेरे।

निश्चत ही यह पुस्तक बुल्ले शाह की रचनाओं से प्रेम करने वाले लोगों को शाह के एक नए संसार से परिचय कराती है.

पुस्तकः बुल्ले शाह
संपादकः माधव हांडा
प्रकाशनः राजपाल एंड संज
मूल्यः 185 रुपये

Location :

Delhi,Delhi,Delhi

First Published :

May 01, 2023, 14:09 IST

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